बुधवार, 3 सितंबर 2014

फ्लाईओवर की शाम ================

तमाम उम्र ज़माने की लग जाएँ तुम्हे
कि उम्र भर न ख़त्म हो , ज़माना तेरा !!
( ये लाइन आज ही लिखी है , दो रोज़ हुए , शानदार फ्लाईओवर के नीचे बदबूदार जीवन , देखने के बाद दिमाग अभी तक दिमाग-दिमाग  नहीं बन पाया )


आज फिर घूमा 
उसी फ्लाईओवर पे 
जिसपे एक बारिशभरी शाम 
बाइक से 
गुजारी थी 
तुम्हारे संग ,, याद है न तुम्हे 
वही फ्लाईओवर 
जिसको बनवाया गया दिल्ली की शान में 
उसी फ्लाईओवर के नीचे तो मिले थे हम दोनों 
इन सभी से 
जहाँ खड़े थे कुछ मज़दूर 
बच्चे खेल रहे थे बकरियो से 
वो साठ साल की बुढ़िया 
जिसने हमारे लिए चाय बनायीं 
और वो बच्चा 
जो कूद आया था अपनी माँ की गोद से 
सीधा तुम्हारी गोद में 
जब तुमने उसे टॉफ़ी दिखाई
इतने दुःख में भी 
मुस्कुराने वाली वो हंसी 
जो उस बच्चे ने हंसी थी 
जिसके पिता की मृत्यु हो गयी थी 
फ्लाईओवर पे ट्रक से 
और उसकी माँ का जीवन नर्क हो गया था 
उसकी ज़ुबान काट दी गयी थी 
ताकि वो अपने जुर्म कबूल न पाये 
जिसमे उसका दोष सिर्फ इतना था की 
वो बार-बार 
किसी चौड़ी छाती वाले फ्लाईओवर के नीचे 
नहीं रहना चाहती थी 
वो आवाज़ उठाती 
जरूर उठाती 
इस फ्लाईओवर के नीचे 
घुटते जीवनो के खिलाफ 

फ्लाईओवर को ज़िंदा रखने के लिए 
ला छोड़ी थी उसके नीचे कुछ ज़िंदगियाँ 
जो सदा छूटे ही  रहे 

मैं फिर से आजकी शाम 
तुम्हारी यादो की चादर लपेट 
एक  खुली किताब सा ,
पलटता रहा 
तुम्हारे संग बीते , ज़िंदगी के 
हरएक शामी  पन्ने को 
हाँफते हुए आया हूँ घर पे 
दो थैला आफतें उठाये
थैला रखते ही 
उठायी वही किताब 
जिसमे रंग था गुलाबी
उसी से 
मिला 
पेज नंबर 138 
जिसमे रखा था तुमने 
मोर का पंख 
पेज नंबर 108 
एक सूखा हुआ गुलाब 
पेज नंबर 155 पे लिखा था तुमने 
लाल पेन से 
मुझको चिढ़ाते हुए 
ट्रक के पीछे लिखी शायरी 
" बुरी नज़र वाले , तेरा मुंह काला"

शायद सही ही था ये 
जभी तो 
आज तुम कहाँ 
और मैं.…  कहाँ !
मेरी इस किताब पे 
लिखी तुम्हारे हाथो से ये शायरी 
शायद ट्रक ड्राइवर को पसंद न आई हो 
या फिर 
ट्रक ड्राइवर के मालिक को  
तुम्हारा यौवन भाया होगा !
तुम्हारे हर इंकार पे ,
मालिक की मर्दानगी कम होती थी
और मालिक लोग तो 
होते ही मर्द  हैं 
वो मर्द था 
उसे पता था 
मर्दानगी कहाँ से दिखानी है 
 किसपे दिखानी है 
और कैसे 
और कैसे किसी का हुक्का-पानी बंद करना है 
वो ये भी जानता था !
और फिर ज़िंदगी की उम्र 
एक बिलखते हुए 
पड़ाव पे जा ख़त्म हुई 

तमाम उम्र ज़माने की लग जाएँ तुम्हे
कि उम्र भर न ख़त्म हो , ज़माना तेरा !!

मनीष भारतीया 

रविवार, 31 अगस्त 2014

लव वाला जेहाद

वो आया था मेरी ज़िंदगी में 
प्यार वाला , मीठा वाला 
इश्क़ वाला लव लिए 
समा गया था मेरे दिलमे 
बस 
अब उसने अपनी बारी खेली 
वो कुतरने लगा 
मेरा दिल 
जैसे चूहे अक्सर कुतर जाते हैं 
आलमारी में घुस 
कपड़ो को 
और फिर निकल जाते हैं 
चुपचाप 
वैसे ही 
ये जेहाद वाला लव भी 
मैंने अपने दिलकी आलमीरा से 
निकाल फेंका 
जैसे अम्मा फेंकती है 
फ्रीज से 
मिर्ची की पन्नी में से निकाल 
बेकार मिर्चियाँ 

manish bhartiya 

शनिवार, 30 अगस्त 2014

घर चाहता हूँ

जिस घर का पता न हो , वो घर चाहता हूँ 
मैं अपनी उलझनों का , कोई हल चाहता हूँ !

जिस गावं से निकला मैं , शहर बन तो वो चूका है 
अब किस शहर मैं जाऊं , मैं गावं चाहता हूँ !!

कंक्रीट के ये जंगल , मुझको नहीं सुहाते 
मैं नीम की सिर्फ  वो , एक छावं चाहता हूँ 

जिस गली से गुजरा हूँ , मैं यूँ अभी अचानक 
था घर यहीं पे मेरा , मैं घर वो चाहता हूँ !!

कलियाँ यूँ खिल रही हैं , जैसे उदास कांटे 
माटी में लोटता वो , बचपन मैं चाहता हूँ 

ये भीड़ ,  ये शहर , और ये अनजान चेहरे 
इन सबसे कहीं दूर , मैं एक घर चाहता हूँ 



manish bhartiya 

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

तस्वीर

चलो हम खेलते हैं फिर एक खेल 
जिसमे न तुम छुपो 
न मैं खोजूं 
जिसमे न तुम भागो 
न मैं पकडू 
न तुम रूठो 
न मैं मनाऊं 
न तुम उलझो 
न मैं सुलझाऊँ 
चलो हम खेलते हैं खेल 
तस्वीर बनके 
सबकुछ देखने का 
और देखते हैं 
क्या सच में 
तस्वीर को कुछ होता है क्या ?

mba

mba

हर एक चीज़ यूँ उतरती हैं सीने में
जैसे कमरे में तेरे फ्रेगनेन्स की
खुश्बू फैले 

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

किताब

कितनी प्यारी होती हैं किताबें 
जिनका कोई भी धर्म नहीं 
जो बाटती हैं 
सारे धर्मो में 
एकबराबर का ज्ञान 
जिनमे एस,सी  ! एस,टी , और ओ बी सी 
नहीं है 
और नहीं है मजहबी सीमा 
जिनमे भगवान , खुदा , जीसस , वाहेगुरु 
का बटवारा नहीं है 
जिनमे नहीं बची इतनी ताकत 
की वो दलितों का और शोषण कर सके 
जो नहीं करती , महिलाओ पे अत्याचार 
जिनके लिए आज भी बच्चा 
उतना ही बेताब रहता है 
जितना वो दो साल की उम्र में था 
मुट्ठी में पकड़के पेंसिल को 
टेढ़ा-मेढ़ा  , गोला-गोला बना देना 
और फिर दिखाना सभी को 
अपनी ये कलाकारी
तोतली जुबां में कहना 
देथो मम्मी , 

सच में कितनी 
प्यारी होती हैं किताबें 



और 
अगर किताब फ्री में मिले 
तो 
सोने पे सुहागा 

बिगाड़ दो तुम भी मुझे 
पुराने वक़्त के ब्राह्मणो सा 
जिनका परम उद्देश्य 
फ्री का खाना 
तोंद फूलाना 
मुझे भी तुम ब्राह्मण बना दो 
पर खाना मत देना 
देना कुछ किताबे 
फ्री की 

आर्डर की किताब का 
घर  आने का इंतज़ार 
प्रेमिका के आने के 
इंतज़ार सा ही तो है 
वही बेसब्री 
वही बेताबी 
और वही जज़्बात 
ये सारे निकल पड़ते हैं 
जब स्पीड पोस्ट वाला 
दरवाज़े की घंटी बजा 
थमा दे आपके हाथो में 

पैकेट फाड़ने की इतनी जल्दी 
जैसे की 
दहेज़ में मिले 
पैकेट को फाड़ते हैं 
जबतक किताब को 
दस-बारह बार 
उलट-पलट के न देखो 
जबतक सुकून ही नहीं मिलता 

बैठ जाना सोफे पे लेके इसे 
एक स्टील के अधभरे चाय के गिलास संग 
चाय की हर चुस्की 
किताब के पन्नो से जुडी हुई 
चलती रहती है 
10 पन्नो पे गिलास खाली हो जाता है 
स्पीड पोस्ट वाले बाबा 
अगली बार किताब लेके आना 
तो 
एक जग चाय भी लाना 
गिलास  घर में है 
है तो गैस , चूल्हा , चीनी , चायपत्ती , अदरक , इलायची ये सब भी 
पर किताब छोड़ने का मन नहीं है 



manish bhartiya 
आशाराम छटपटा रहें हैं जेल से बाहर आने को , अपने एक बड़बोलेपन में उन्होंने कहा था की , मैं तिहाड़ को प्लेन से देखा आया हूँ , ये जेल जाने से पहले किया था इन्होने ! अब लगभग एक साल बाद उन्हें फिर से बीमारी हो गयी है ! वो जेल से बाहर आने के लिए बेताब और want more vitamin she , लेना चाहते चाहते हैं ! 
उनकी बेताबी भरी बिमारी को जल्द ही आराम मिले ,, 
चुल्लू भर पानी में डूबें , और चल बसे !
देश को आराम देना ही , एक नायक के लिए सर्वोपरि हो सकता है ! और आप तो नायक ही नहीं , महा नालायक हैं ! 
मुझे उम्मीद है , की पांच साल बाद आप सामान्य ज्ञान के एक प्रश्न बन जाएंगे ! और बच्चे जवाब में "बलात्कारी बाबा " पे टिक लगाके , एक नंबर जुहाएँगे ! 
चलिए किसी काम तो आईये महाराज , बहुत दिन राधा बनके नाचे और नचाये 
तुम्हरे पदचिन्हो पे क्यों न , बेटा तुम्हरा जाए !!
मनीष भारतीय 

लाज का पल्लू

जी जी जी 
आपही से कह रहा हूँ 
सुनिए तो ज़रा 
पल्लू से मुह मत ढकिये 
अच्छा नहीं लगता
 
क्या ? क्या कहा ?
ज़रा फिरसे कहना !
क्या नहीं अच्छा लगता !

जी आप गलत समझी 
मैं आपके मुँह की नहीं 
पल्लू के मुँह पे होने की बात कर रहा हूँ !

दिखाईये न 
अपनी बड़ी-बड़ी 
आँखें 
अपने पतले-पतले 
गुलाबी होंट !
क्या हुआ 
अगर कोई पुरुष तुम्हे घूरता है तो 
डरती क्यों हो 
उतार फेंको ये डर का चोला 
पहनो 
बेशर्मी का कपडा 
और निकल जाओ बाजार में 
सर खोलके 
घूरो तुमभी उस पुरुष को 
जो तुम्हे घूरता था 
और पास जाके कहो 
भाई साहब , चिकन कहाँ मिलता है 
बताएँगे क्या 
या फिर आप संग चलके दिलवा लाएं !
यकीं करो 
वो शर्म से लजा जाएगा 
तुम अपनी उस शर्म का पल्लू 
उसके चेहरे पे देख लोगी !

हटाओ न चेहरे से पल्लू 
क्यों छुपाये फिर रही हो 
अपनी सुंदरता तुम 
ऐसे 

मनीष भारतीया 

अखबार होना

हर रोज़ जीवन 
अखबार की तरह बदलता है 
कुछ नयी घटना 
कुछ वही पुरानी 
कुछ मिर्च-मसाला वाली चीज़े 
कुछ ख़बरें 
लिपटी आ जाती हैं कष्ट में 
कितना मुश्किल है 
अखबार होना 


आपपर चाही-अनचाही 
सारी  खबरों को लाद दिया जाता है !
यूँ तो हमसे कहीं ज्यादा दुःख 
पेपर को होता होगा 
हमतो एक बार पढ़ने के बाद छोड़ देते हैं उसे 
पर वो 
ज़िंदा रहता है 
सदियों तक 
उन्ही झूठी खबरों को 
अपने जिस्म से लिपटाये 
सदियों तक वो महज़ 
500 रुपये में 
एक कॉलम लिए घूमता रहता है 
गुमशुदा की तलाश 
या फिर 
उतने ही दाम में 
वो करता रहता है प्रचार 
अपनी पहली कीमत पर ही 
बाबा बंगाली 
कद बढ़ाएं या घटायें , वरना पैसे वापस पाएं 

कभी-कभी 
समोसे वाले थैले को 
फाड़ने के बाद 
जब उसमे से 
न्यूड सनी लेओनी की तस्वीर निकले , तो जाके 
ये पता चलता है की , 
समोसा इतना गर्म  क्यों है 

और वो बाघ -बकरी चाय 
जिसमे ये दोनों नाम ही 
एक दूसरे से डरते-मरते हैं 
इनका भी विज्ञापन 

और वो 
सबकी पसंद निरमा 
ऐश्वर्या के बाद 
कैटरीना का अधिकार वाला साबुन 
लक्स , ब्यूटी 

90 दिनों में सीखते फर्राटेदार इंग्लिश 
10  दिनों में , नंबर वन फिगर बनाना 
7 दिनों में गोरा करने वाली क्रीम 
वो बैंक वाले जो घर-घर लोन पहुंचाते हैं 
वो चाइना के मालो का सस्ता विज्ञापन 
पाइए एक पे दो फ्री 
और वो आराम से मिलती नौकरियां 
सोने पे सुहागा 
दसवी फेल तुरंत पाएं नौकरी 
वेतन 12 से 20 हज़ार 
वो कॉलेज 
जो बाटते हैं डिग्रियां 
घर बैठे 
उनके बाप का राज़ जो चल रहा होता है 
और वो एक सबसे डरावना लगता है जो 
सिंह राशि वाले  = आज लाल रंग का कपडा पहने , कुत्ते को जलेबी खिलाएं , दिन अच्छा जाएगा !
अबे साले 
सुबह 6 बजे अखबार पढ़ा है 
दिल्ली में दूकान नहीं खुलती 
सुबह जलेबी सिर्फ उत्तर प्रदेश में मिलती है 
डेल्ही में शाम को ! 
एक काम करो तुम  ही आ जाओ 
जलेबी खाने 
मैं घर पे बना लेता हूँ 
 

सच में कितना मुश्किल  है 
अखबार होना 

मनीष भारतीया 

सिगरेट

अभी तो बस जलाया है तुम्हे 
अभी सुलगना है 
तुम्हे काफी देर तक 
प्याले की चाय के बाद तक 
चलना है तुम्हे 
बस ऐसे ही 
और इतना ही 
हर रोज़ जलना है तुम्हे ! 

सुलग-सुलग के 
जो तुम्हारी ऐश गिरती है फर्श पे 
वो किसी की ज़िंदगी की ऐश हो सकती है 
या फिर 
ठंडी हवा का झोंका , समीर कहने वाली ऐश भी 
खैर छोड़ो 
तुम्हे तो जलना है 
आते ही फ़िल्टर को 
तुम छोड़ दोगी 
अपनी पूरी लालिमा 
और एक प्यासा 
जिसे सिर्फ एक पफ और चाहिए 
वो उदास होके 
खाली चाय पीके 
चल उठेगा 

अए सिगरेट 
तुम क्या किसी लक्ष्मी मइया से कम हो 
या तुम खुदको आलीशान बिल्डिंगों से कम समझती हो 
तुम ही तो हो 
जिससे भारत में भारतीयता बची है अभी 
गरीब हो या आमीर 
एक ही दूकान पे 
एक साथ खड़े मिलेंगे 
जो आज से पहले कभी भी न मिला हो 
वो दूकान पे गाडी से आता है 
सिगरेट लेता है 
जलाता है 
और जभी बगल में खड़े एक आदमी के हाथो में 
सिगरेट देख 
वो लाइटर जला के 
उसके मुह की तरफ बढ़ा देता है 
दोनों की सिगरेट जल चुकी है 

तुमही तो हो 
जो भारत -पाक को एक कर सकती हो 
मैंने सुना है 
तुम्हे लेने के बाद , आदमी सोचता बहुत है 

एक तुम्हारे ही लिए 
जब आवाज़ उठी 
की तुम अपने भाव बढ़ाने वाली हो 
साइकिल , स्कूटर , बीएम डब्लू 
सभी के मालिको के चेहरे उत्तर गए थे 
लेखक संघ 
त्राहि-त्राहि 
चिल्लाता हुआ भागा था 

अब सोचो ज़रा 
कितना प्यार है लोगो को तुमसे 
कभी-कभी गरीबी में 
तुम्हे बस एक ही ख़रीदा जाता है 
और चार दोस्त 
सामूहिक रूप से 
लगाते हैं तुम्हे अपने मुह से !
सोचो भला 
पत्नी से भी ज्यादा प्यार 
तुमसे 
हो जाता है दोस्तों को 

बरसात के दिनों में 
तुम्हारा ख्याल 
एकदम प्रेमिका की तरह ही तो रखा जाता है 
हाथो का छाता 
तुम्हारे जिस्म पर रख 
तुम्हे जेब में 
रख लिया जाता है 
ताकि तुम्हे जुखाम न हो 
और खुद 
छींकने लगते है 
फिर 
तुम्हारे पहले कश में 
धुआं नाको से निकाला जाता है 

तुम्हारा नाम भी तो कैसा-कैसा है 
छोटी - बड़ी गोल्ड फ्लैक 
कहते हुए , एक जीजा को अपनी सालियां याद आजायें,
छोटी और बड़ी 
रंगो का भेद तुमने ये बताया 
लाल और सफ़ेद 
और सालियों से मिलना 
क्लासिक रोज़ाना 
और प्यारी-प्यारी बातें कर लेने के बाद चाहिए 
मोर 
जब मन हो ज़रा सा वाइल्ड 
तो मिल जाए बस माइल्ड 

manish bhartiya 

बुधवार, 20 अगस्त 2014

अखबार होना

हर रोज़ जीवन 
अखबार की तरह बदलता है 
कुछ नयी घटना 
कुछ वही पुरानी 
कुछ मिर्च-मसाला वाली चीज़े 
कुछ ख़बरें 
लिपटी आ जाती हैं कष्ट में 
कितना मुश्किल है 
अखबार होना 


आपपर चाही-अनचाही 
सारी  खबरों को लाद दिया जाता है !
यूँ तो हमसे कहीं ज्यादा दुःख 
पेपर को होता होगा 
हमतो एक बार पढ़ने के बाद छोड़ देते हैं उसे 
पर वो 
ज़िंदा रहता है 
सदियों तक 
उन्ही झूठी खबरों को 
अपने जिस्म से लिपटाये 
सदियों तक वो महज़ 
500 रुपये में 
एक कॉलम लिए घूमता रहता है 
गुमशुदा की तलाश 
या फिर 
उतने ही दाम में 
वो करता रहता है प्रचार 
अपनी पहली कीमत पर ही 
बाबा बंगाली 
कद बढ़ाएं या घटायें , वरना पैसे वापस पाएं 

कभी-कभी 
समोसे वाले थैले को 
फाड़ने के बाद 
जब उसमे से 
न्यूड सनी लेओनी की तस्वीर निकले , तो जाके 
ये पता चलता है की , 
समोसा इतना गर्म  क्यों है 

और वो बाघ -बकरी चाय 
जिसमे ये दोनों नाम ही 
एक दूसरे से डरते-मरते हैं 
इनका भी विज्ञापन 

और वो 
सबकी पसंद निरमा 
ऐश्वर्या के बाद 
कैटरीना का अधिकार वाला साबुन 
लक्स , ब्यूटी 

90 दिनों में सीखते फर्राटेदार इंग्लिश 
10  दिनों में , नंबर वन फिगर बनाना 
7 दिनों में गोरा करने वाली क्रीम 
वो बैंक वाले जो घर-घर लोन पहुंचाते हैं 
वो चाइना के मालो का सस्ता विज्ञापन 
पाइए एक पे दो फ्री 
और वो आराम से मिलती नौकरियां 
सोने पे सुहागा 
दसवी फेल तुरंत पाएं नौकरी 
वेतन 12 से 20 हज़ार 
वो कॉलेज 
जो बाटते हैं डिग्रियां 
घर बैठे 
उनके बाप का राज़ जो चल रहा होता है 
और वो एक सबसे डरावना लगता है जो 
सिंह राशि वाले  = आज लाल रंग का कपडा पहने , कुत्ते को जलेबी खिलाएं , दिन अच्छा जाएगा !
अबे साले 
सुबह 6 बजे अखबार पढ़ा है 
दिल्ली में दूकान नहीं खुलती 
सुबह जलेबी सिर्फ उत्तर प्रदेश में मिलती है 
डेल्ही में शाम को ! 
एक काम करो तुम  ही आ जाओ 
जलेबी खाने 
मैं घर पे बना लेता हूँ 
 

सच में कितना मुश्किल  है 
अखबार होना 

मनीष भारतीया 

ख्याल आते हैं , चले जाते हैं : लाज का पल्लू

ख्याल आते हैं , चले जाते हैं : लाज का पल्लू: जी जी जी  आपही से कह रहा हूँ  सुनिए तो ज़रा  पल्लू से मुह मत ढकिये  अच्छा नहीं लगता   क्या ? क्या कहा ? ज़रा फिरसे कहना ! क्य...

लाज का पल्लू

जी जी जी 
आपही से कह रहा हूँ 
सुनिए तो ज़रा 
पल्लू से मुह मत ढकिये 
अच्छा नहीं लगता
 
क्या ? क्या कहा ?
ज़रा फिरसे कहना !
क्या नहीं अच्छा लगता !

जी आप गलत समझी 
मैं आपके मुँह की नहीं 
पल्लू के मुँह पे होने की बात कर रहा हूँ !

दिखाईये न 
अपनी बड़ी-बड़ी 
आँखें 
अपने पतले-पतले 
गुलाबी होंट !
क्या हुआ 
अगर कोई पुरुष तुम्हे घूरता है तो 
डरती क्यों हो 
उतार फेंको ये डर का चोला 
पहनो 
बेशर्मी का कपडा 
और निकल जाओ बाजार में 
सर खोलके 
घूरो तुमभी उस पुरुष को 
जो तुम्हे घूरता था 
और पास जाके कहो 
भाई साहब , चिकन कहाँ मिलता है 
बताएँगे क्या 
या फिर आप संग चलके दिलवा लाएं !
यकीं करो 
वो शर्म से लजा जाएगा 
तुम अपनी उस शर्म का पल्लू 
उसके चेहरे पे देख लोगी !

हटाओ न चेहरे से पल्लू 
क्यों छुपाये फिर रही हो 
अपनी सुंदरता तुम 
ऐसे 

मनीष भारतीया 

सोमवार, 18 अगस्त 2014

भांजियों के लिए

भांजियों के लिए

ले आया हूँ
बोस्की का पंचतंत्र
अपनी भांजियों के लिए !

पर उन्हें अभी देने से ज़रा घबराता हूँ
छोटी तो नहीं हैं वो अभी इतनी
की उन्हें किताब उपहार में न दी जा सके
पर दोनों बहुत शरारती हैं
जब आती हैं वो घर पे
तो मुझे बहुत सम्भालना पड़ता है अपनी किताबो को

पिछली बार
रच गयी वो
कितने पाकिस्तान के कई पन्नो पे
अपनी कारिस्तानियां
पॉलगोमरा का,,
 ही बचा है
स्कूटर पे एक लाल स्केच से
एक कार बना दी है
जो कार लगती तो नहीं
पर छोटीवाली से पूछो
तो वो ही बताती है !

रोल्ड डल्फ की कहानियो की किताब के
अठत्तरवें पेज पे
पेंसिल से
ए , बी , सी , डी लिख डाली है

झुम्पा लहरी की अनभयस्त धरती को
सच में
अनभयस्त कर दिया

मंटो को बना दिया कालजयी लेखक
उसके पहले पन्ने पे
टेढ़े-मेढ़े से लिखे
उनके छोटे हाथो से
लडखडाती हुई पेंसिल से लिखा
कालजयी पढ़ने के बाद
ये पता चल जाएगा !

आँख की किरकिरी के
दूसरे पन्ने पे बना
टेढ़-बाकुल आम
उनकी सबसे प्यारी कलाकारी है

निदा फ़ाज़ली के चेहरे पे
मूंछ बना देना
समरसेट माम की
चाँद और छः आने पे
एक नया चाँद बनाया है !

ब्राटिस्लावा की परायी बेटियां
मोहन राकेश के
आखरी चट्टान तक
नहीं जा पाती
बीच में इन्होने
कुछ पन्नो को
फाड़ दिया है !

आपका बंटी से
50 से 60 तक की संख्या के
पेज गायब हैं
कादंबरी दो
अपना मोटापा कम कर चुकी है

मिखाईल सोलोख़ोव के साहित्य
को
पानी में भिगा दिया था
गलती से बोतल गिर गयी थी पानी की !

मॉडर्न इंडियन थिएटर के
हर चैप्टर पे
कुछ नया लिखा है इन्होने !
द कोस्टा
डेवलपमेंट ड्रामा का
कवर अलग मिला था
मन-माटी
के दसवें पन्ने पे
रावण बना मिला
दस नारियाँ रविन्द्र जी के कहानी संग्रह में
जिसमे दस कहानिया थी
महज़ आठ ही मिली !
मंटो के रेडियो नाटक
मत पूछो

हाँ मैं लाया हूँ
बोस्की का पंचतंत्र
अपनी भांजियों के लिए
दूंगा उन्हें
पर कुछ दिनों बाद !

मनीष भारतीया

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

बॉर्डर होने का दुःख

आज पाकिस्तान की आज़ादी मुबारक हो ! 
रात 12 बजे के बाद हिन्दुस्तान की !

और वो सरहद क्या करे 
जो सदियों से भीग रही है 
मुस्लिम लहू और 
हिन्दू खून से !

क्या ये सरहद भी कभी आज़ादी का जश्न मना पायेगी 
या फिर 
ये जश्न 
सिर्फ-और-सिर्फ 
दो कौमो तक ही सिमट गया है 

किसी ने खींच दिया गुस्से में ये जल्ला 
कभी इसी जल्ले पे खेलते थे 
चिभ्भि  , गुल्ली-डण्डा , और लंगड़ी टांग !
पर अब इस जल्ले की सीमा बढ़ी है 
खेल के बदले 
होता है 
बिना पलक झपकाये 
एकटक निहारते रहने का खेल 
जल्ले की दोनों तरफ की टीम 
ऐसा ही करती है अब !!
manish bhartiya 

बुधवार, 6 अगस्त 2014

चिठ्ठी

वो छोड़ जाती थी डाक में 
साल-दर  -साल 
चिट्ठी कोई , मेरे नाम की !
और मैं 
उन्ही चिट्ठियों के दम पे 
मुस्कराता रहता 
रात-दिन 
साल-दर -साल ! 

पिछले कुछ वर्षो से नहीं आया 
दरवाज़े पे 
खाखी वर्दी वाला आदमी 
और न ही बजी 
मेरे दरवाज़े की कुण्डी 
और न ही तो टुनटुनाई कभी 
डोर बेल 

याद है 
पिछले वरस आया था 
अपने सीधे कंधे पे 
लटकाये एक झोला 
जो दे गया था मुझको 
इस साल तक की पूरी ख़ुशी ! 

भला कौन था वो अनजान 
जो बांच रहा था 
खुशियो की खुशबूभरी चिट्ठियां 
पूरे मोहल्ले में 
दिन-रात !

याद है वो 
15 जुलाई
 जब आया था डाकिया 
गुलाबी लिफाफे में 
तेरे लफ्ज़ो को कैद करके 
लाया था मेरे पास !
वो लिफाफा आज भी 
मेरी तखिये के नीचे है 
और मैंने 
सहेज लिए हैं 
उसके सारे शब्द 
अपनी छाप दे जाते हैं 
मेरे होंटो पे 
तुम्हारे होंटो की छुवन सी महसूस हुई थी 
पढ़ते वक़्त 

कैसे 
जीवन के 
सारे सेकंड 
तब्दील हो जाते हैं मिनट में 
और मिनट बदलता है घंटो में 
और घंटे दिन में 
दिन से हफ्ते 
हफ्ते से महीना 
और महीने से 
बन जाता है साल 
बिलकुल ऐसे ही तो 
हम बिछड़े हैं ! 
सेकंड-दर-सेकंड 
मिनट-दर -मिनट 
साल-दर -साल !

तुम्हारी काली बड़ी आँखे 
आज भी मुझे घूरती है 
मैं आज भी तुमसे गले मिलता हूँ 
और तुम्हारे 
वक्ष गर्मी दे जाते हैं मेरे सीने में 
तुम खुदा की कसम 
कुछ मत करो 
कभी आओ  
और लड़ो मुझसे 
और छीन के ले जाओ 
अपनी सारी 
यादें 
मुझसे 
मुझसे 
मुझसे 

manish bhartiya 

रविवार, 3 अगस्त 2014

ख्याल आते हैं , चले जाते हैं : ज़िद्द

ख्याल आते हैं , चले जाते हैं : ज़िद्द: आज खाने की जिद्द ना करो  आज खाने की जिद्द न करो !! तुम ही सोचो ज़रा , कितना खाती हो तुम  क्यों न रोके तुम्हे , सब चबाती हो तुम  जा...

बचपन

                                          बचपन 
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चिराग डेल्ही की रेड लाइट से 
शाहदरा मेट्रो तक 
अनगिनत 
बेकार 
भूखे 
अनपढ़ 
लाचार 
बचपन 

मैले -कुचैले ,
दुर्गन्धित 
प्यासे 
सपनो का बचपन 

अभी दोपहर कि ही बात है 
नहर के ऊपर लगे 
मोटे पाइप से 
पी रहा था पानी , 
बचपन 

उम्र ही क्या 
महज़ 10 
मुहमे सिगरेट दबाये 
चल रहा था 
बचपन 

रेड लाइटओ पे 
10 रूपया के 
खिलौने मात्र के लिए 
पिट रहा था
 बचपन !

नंगे पावं 
धूप में 
छालो को 
घिस रहा था
 बचपन 

मनीष भारतीया

see and say


ज़िद्द

आज खाने की जिद्द ना करो 
आज खाने की जिद्द न करो !!

तुम ही सोचो ज़रा , कितना खाती हो तुम 
क्यों न रोके तुम्हे , सब चबाती हो तुम 
जान जाती है जब आर्डर देतीं हो तुम 
तुमको मेन्यू कि है कसम
बात इतनी मेरी मान लो 
आज खाने कि ज़िद्द न करो !!

पिज़्ज़ा और बर्गेर मे , ज़िंदगी है तेरी 
चाट , टिक्की ,मोमोस भी लेके धरी 
गोलगप्पे जो खाती हो तुम 
मुह को कितना फुलाती हो तुम 
आज खाने कि ज़िद्द न करो !!

जंग लगके यहाँ  , जंक फ़ूड मिला 
इससे सबको कमाई का मूँड़ मिला 
गावं , शहर , और क्या कस्बा 
सब ही चांटे हैं , धर-धर प्लेट 
आज करवा न तू मुझको लेट 
आज खाने कि ज़िद्द न करो 

कम खाया कर यार , दिमाग तो खासतौर पे 

मनीष भारतीया अल्ल्हाबादी 

happy friendship day


सिगरेट

ख्याल आते हैं , चले जाते हैं 
हम भी सिगरेट से सुलग जाते हैं !!