शनिवार, 30 अगस्त 2014

घर चाहता हूँ

जिस घर का पता न हो , वो घर चाहता हूँ 
मैं अपनी उलझनों का , कोई हल चाहता हूँ !

जिस गावं से निकला मैं , शहर बन तो वो चूका है 
अब किस शहर मैं जाऊं , मैं गावं चाहता हूँ !!

कंक्रीट के ये जंगल , मुझको नहीं सुहाते 
मैं नीम की सिर्फ  वो , एक छावं चाहता हूँ 

जिस गली से गुजरा हूँ , मैं यूँ अभी अचानक 
था घर यहीं पे मेरा , मैं घर वो चाहता हूँ !!

कलियाँ यूँ खिल रही हैं , जैसे उदास कांटे 
माटी में लोटता वो , बचपन मैं चाहता हूँ 

ये भीड़ ,  ये शहर , और ये अनजान चेहरे 
इन सबसे कहीं दूर , मैं एक घर चाहता हूँ 



manish bhartiya 

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