जिस घर का पता न हो , वो घर चाहता हूँ
मैं अपनी उलझनों का , कोई हल चाहता हूँ !
जिस गावं से निकला मैं , शहर बन तो वो चूका है
अब किस शहर मैं जाऊं , मैं गावं चाहता हूँ !!
कंक्रीट के ये जंगल , मुझको नहीं सुहाते
मैं नीम की सिर्फ वो , एक छावं चाहता हूँ
जिस गली से गुजरा हूँ , मैं यूँ अभी अचानक
था घर यहीं पे मेरा , मैं घर वो चाहता हूँ !!
कलियाँ यूँ खिल रही हैं , जैसे उदास कांटे
माटी में लोटता वो , बचपन मैं चाहता हूँ
ये भीड़ , ये शहर , और ये अनजान चेहरे
इन सबसे कहीं दूर , मैं एक घर चाहता हूँ
manish bhartiya
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें