बुधवार, 3 सितंबर 2014

फ्लाईओवर की शाम ================

तमाम उम्र ज़माने की लग जाएँ तुम्हे
कि उम्र भर न ख़त्म हो , ज़माना तेरा !!
( ये लाइन आज ही लिखी है , दो रोज़ हुए , शानदार फ्लाईओवर के नीचे बदबूदार जीवन , देखने के बाद दिमाग अभी तक दिमाग-दिमाग  नहीं बन पाया )


आज फिर घूमा 
उसी फ्लाईओवर पे 
जिसपे एक बारिशभरी शाम 
बाइक से 
गुजारी थी 
तुम्हारे संग ,, याद है न तुम्हे 
वही फ्लाईओवर 
जिसको बनवाया गया दिल्ली की शान में 
उसी फ्लाईओवर के नीचे तो मिले थे हम दोनों 
इन सभी से 
जहाँ खड़े थे कुछ मज़दूर 
बच्चे खेल रहे थे बकरियो से 
वो साठ साल की बुढ़िया 
जिसने हमारे लिए चाय बनायीं 
और वो बच्चा 
जो कूद आया था अपनी माँ की गोद से 
सीधा तुम्हारी गोद में 
जब तुमने उसे टॉफ़ी दिखाई
इतने दुःख में भी 
मुस्कुराने वाली वो हंसी 
जो उस बच्चे ने हंसी थी 
जिसके पिता की मृत्यु हो गयी थी 
फ्लाईओवर पे ट्रक से 
और उसकी माँ का जीवन नर्क हो गया था 
उसकी ज़ुबान काट दी गयी थी 
ताकि वो अपने जुर्म कबूल न पाये 
जिसमे उसका दोष सिर्फ इतना था की 
वो बार-बार 
किसी चौड़ी छाती वाले फ्लाईओवर के नीचे 
नहीं रहना चाहती थी 
वो आवाज़ उठाती 
जरूर उठाती 
इस फ्लाईओवर के नीचे 
घुटते जीवनो के खिलाफ 

फ्लाईओवर को ज़िंदा रखने के लिए 
ला छोड़ी थी उसके नीचे कुछ ज़िंदगियाँ 
जो सदा छूटे ही  रहे 

मैं फिर से आजकी शाम 
तुम्हारी यादो की चादर लपेट 
एक  खुली किताब सा ,
पलटता रहा 
तुम्हारे संग बीते , ज़िंदगी के 
हरएक शामी  पन्ने को 
हाँफते हुए आया हूँ घर पे 
दो थैला आफतें उठाये
थैला रखते ही 
उठायी वही किताब 
जिसमे रंग था गुलाबी
उसी से 
मिला 
पेज नंबर 138 
जिसमे रखा था तुमने 
मोर का पंख 
पेज नंबर 108 
एक सूखा हुआ गुलाब 
पेज नंबर 155 पे लिखा था तुमने 
लाल पेन से 
मुझको चिढ़ाते हुए 
ट्रक के पीछे लिखी शायरी 
" बुरी नज़र वाले , तेरा मुंह काला"

शायद सही ही था ये 
जभी तो 
आज तुम कहाँ 
और मैं.…  कहाँ !
मेरी इस किताब पे 
लिखी तुम्हारे हाथो से ये शायरी 
शायद ट्रक ड्राइवर को पसंद न आई हो 
या फिर 
ट्रक ड्राइवर के मालिक को  
तुम्हारा यौवन भाया होगा !
तुम्हारे हर इंकार पे ,
मालिक की मर्दानगी कम होती थी
और मालिक लोग तो 
होते ही मर्द  हैं 
वो मर्द था 
उसे पता था 
मर्दानगी कहाँ से दिखानी है 
 किसपे दिखानी है 
और कैसे 
और कैसे किसी का हुक्का-पानी बंद करना है 
वो ये भी जानता था !
और फिर ज़िंदगी की उम्र 
एक बिलखते हुए 
पड़ाव पे जा ख़त्म हुई 

तमाम उम्र ज़माने की लग जाएँ तुम्हे
कि उम्र भर न ख़त्म हो , ज़माना तेरा !!

मनीष भारतीया 

रविवार, 31 अगस्त 2014

लव वाला जेहाद

वो आया था मेरी ज़िंदगी में 
प्यार वाला , मीठा वाला 
इश्क़ वाला लव लिए 
समा गया था मेरे दिलमे 
बस 
अब उसने अपनी बारी खेली 
वो कुतरने लगा 
मेरा दिल 
जैसे चूहे अक्सर कुतर जाते हैं 
आलमारी में घुस 
कपड़ो को 
और फिर निकल जाते हैं 
चुपचाप 
वैसे ही 
ये जेहाद वाला लव भी 
मैंने अपने दिलकी आलमीरा से 
निकाल फेंका 
जैसे अम्मा फेंकती है 
फ्रीज से 
मिर्ची की पन्नी में से निकाल 
बेकार मिर्चियाँ 

manish bhartiya 

शनिवार, 30 अगस्त 2014

घर चाहता हूँ

जिस घर का पता न हो , वो घर चाहता हूँ 
मैं अपनी उलझनों का , कोई हल चाहता हूँ !

जिस गावं से निकला मैं , शहर बन तो वो चूका है 
अब किस शहर मैं जाऊं , मैं गावं चाहता हूँ !!

कंक्रीट के ये जंगल , मुझको नहीं सुहाते 
मैं नीम की सिर्फ  वो , एक छावं चाहता हूँ 

जिस गली से गुजरा हूँ , मैं यूँ अभी अचानक 
था घर यहीं पे मेरा , मैं घर वो चाहता हूँ !!

कलियाँ यूँ खिल रही हैं , जैसे उदास कांटे 
माटी में लोटता वो , बचपन मैं चाहता हूँ 

ये भीड़ ,  ये शहर , और ये अनजान चेहरे 
इन सबसे कहीं दूर , मैं एक घर चाहता हूँ 



manish bhartiya 

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

तस्वीर

चलो हम खेलते हैं फिर एक खेल 
जिसमे न तुम छुपो 
न मैं खोजूं 
जिसमे न तुम भागो 
न मैं पकडू 
न तुम रूठो 
न मैं मनाऊं 
न तुम उलझो 
न मैं सुलझाऊँ 
चलो हम खेलते हैं खेल 
तस्वीर बनके 
सबकुछ देखने का 
और देखते हैं 
क्या सच में 
तस्वीर को कुछ होता है क्या ?

mba

mba

हर एक चीज़ यूँ उतरती हैं सीने में
जैसे कमरे में तेरे फ्रेगनेन्स की
खुश्बू फैले 

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

किताब

कितनी प्यारी होती हैं किताबें 
जिनका कोई भी धर्म नहीं 
जो बाटती हैं 
सारे धर्मो में 
एकबराबर का ज्ञान 
जिनमे एस,सी  ! एस,टी , और ओ बी सी 
नहीं है 
और नहीं है मजहबी सीमा 
जिनमे भगवान , खुदा , जीसस , वाहेगुरु 
का बटवारा नहीं है 
जिनमे नहीं बची इतनी ताकत 
की वो दलितों का और शोषण कर सके 
जो नहीं करती , महिलाओ पे अत्याचार 
जिनके लिए आज भी बच्चा 
उतना ही बेताब रहता है 
जितना वो दो साल की उम्र में था 
मुट्ठी में पकड़के पेंसिल को 
टेढ़ा-मेढ़ा  , गोला-गोला बना देना 
और फिर दिखाना सभी को 
अपनी ये कलाकारी
तोतली जुबां में कहना 
देथो मम्मी , 

सच में कितनी 
प्यारी होती हैं किताबें 



और 
अगर किताब फ्री में मिले 
तो 
सोने पे सुहागा 

बिगाड़ दो तुम भी मुझे 
पुराने वक़्त के ब्राह्मणो सा 
जिनका परम उद्देश्य 
फ्री का खाना 
तोंद फूलाना 
मुझे भी तुम ब्राह्मण बना दो 
पर खाना मत देना 
देना कुछ किताबे 
फ्री की 

आर्डर की किताब का 
घर  आने का इंतज़ार 
प्रेमिका के आने के 
इंतज़ार सा ही तो है 
वही बेसब्री 
वही बेताबी 
और वही जज़्बात 
ये सारे निकल पड़ते हैं 
जब स्पीड पोस्ट वाला 
दरवाज़े की घंटी बजा 
थमा दे आपके हाथो में 

पैकेट फाड़ने की इतनी जल्दी 
जैसे की 
दहेज़ में मिले 
पैकेट को फाड़ते हैं 
जबतक किताब को 
दस-बारह बार 
उलट-पलट के न देखो 
जबतक सुकून ही नहीं मिलता 

बैठ जाना सोफे पे लेके इसे 
एक स्टील के अधभरे चाय के गिलास संग 
चाय की हर चुस्की 
किताब के पन्नो से जुडी हुई 
चलती रहती है 
10 पन्नो पे गिलास खाली हो जाता है 
स्पीड पोस्ट वाले बाबा 
अगली बार किताब लेके आना 
तो 
एक जग चाय भी लाना 
गिलास  घर में है 
है तो गैस , चूल्हा , चीनी , चायपत्ती , अदरक , इलायची ये सब भी 
पर किताब छोड़ने का मन नहीं है 



manish bhartiya 
आशाराम छटपटा रहें हैं जेल से बाहर आने को , अपने एक बड़बोलेपन में उन्होंने कहा था की , मैं तिहाड़ को प्लेन से देखा आया हूँ , ये जेल जाने से पहले किया था इन्होने ! अब लगभग एक साल बाद उन्हें फिर से बीमारी हो गयी है ! वो जेल से बाहर आने के लिए बेताब और want more vitamin she , लेना चाहते चाहते हैं ! 
उनकी बेताबी भरी बिमारी को जल्द ही आराम मिले ,, 
चुल्लू भर पानी में डूबें , और चल बसे !
देश को आराम देना ही , एक नायक के लिए सर्वोपरि हो सकता है ! और आप तो नायक ही नहीं , महा नालायक हैं ! 
मुझे उम्मीद है , की पांच साल बाद आप सामान्य ज्ञान के एक प्रश्न बन जाएंगे ! और बच्चे जवाब में "बलात्कारी बाबा " पे टिक लगाके , एक नंबर जुहाएँगे ! 
चलिए किसी काम तो आईये महाराज , बहुत दिन राधा बनके नाचे और नचाये 
तुम्हरे पदचिन्हो पे क्यों न , बेटा तुम्हरा जाए !!
मनीष भारतीय